नारी विमर्श >> आपका बंटी आपका बंटीमन्नू भंडारी
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आपका बंटी मन्नू भंडारी का एक बहुत ही रोचक उपन्यास है...
दो
शनिवार को ममी लंच के बाद कॉलेज नहीं जातीं।
खाना खाकर ममी उठीं और सोने के कमरे के सारे परदे खींच दिए। कमरे में हलका-सा
अँधेरा हो गया। अभी तो उतनी गरमी नहीं है, वरना ममी रोशनदानों में भी काले या
भूरे कागज़ चिपकवा देती हैं। गरमी में उन्हें रोशनी बिलकुल अच्छी नहीं लगती।
और बंटी है कि उसका अँधेरे में जैसे जी घबराता है।
अँधेरा यानी कि सोओ। रात-भर अँधेरा रहता है और रात-भर वह सोता भी है। अब दिन
में भी अँधेरा कर दोगे तो कोई रात थोड़े ही हो जाएगी। और रात नहीं तो सोए
कैसे ? पर ममी सुनती हैं कोई बात ?
"बंटी, चलो सोओ !" और पकड़कर पलंग पर डाल देती हैं।
बंटी जानता है कि कुछ भी कहना-सुनना बेकार है, इसलिए जैसे ही ममी ने परदे
खींचे, चुपचाप आकर पलंग पर लेट गया। जब तक आँखें खुली हैं, नजर कमरे की
दीवारों में कैद है, पर आँख बंद करते ही जैसे सारी सीमाएँ टूट जाती हैं और न
जाने कहाँ-कहाँ के जंगल, पहाड़ और समुद्र तैर आते हैं आँखों के सामने। परीलोक
की परियाँ और पाताललोक की नाग-कन्याएँ तैरती हुईं उसके सामने से निकल जाती
हैं।
अच्छा, अगर कोई उसे जादू के पंख या उड़नेवाला घोड़ा दे दे तो वह क्या करे ?
एकदम पापा के पास चला जाए और उन्हें चौंका दे। अचानक उसे आया देख पापा कितने
खुश हो जाएँगे। इधर ममी ढूँढ़-ढूँढ़कर परेशान। बाहर देखेंगी, टीटू के घर में
जाएँगी, कुन्नी के घर जाएँगी, फूफी सारे में दौड़ती फिरेगी और वह जादू की
टोपी पहने सबकुछ देखता रहेगा...परेशान होती ममी को, इधर-उधर दौड़ती हुई
बौखलाई-सी फूफी को। और जब ममी रो पड़ेंगी तो झट से टोपी उतारकर उनके गले में
लिपट जाएगा।
पर ये सब चीजें मिलती कहाँ हैं ? सारी कहानियों में इनकी बातें हैं, पर किसी
ने भी यह नहीं लिखा कि ये मिलती कहाँ हैं। कोई साधू मिल जाए तो बता सकता है
या उसके पास भी ऐसी चीजें हो सकती हैं।
ममी सो गईं। एक क्षण बंटी ममी को देखता रहा...कहीं पलकें हिल तो नहीं रहीं।
तभी ख़याल आया, सोती हुई ममी कितनी अच्छी लगती हैं। अच्छा, ममी तरह-तरह की
कैसे हो जाया करती हैं ? टीटू की अम्मा को तो कभी भी जाकर देख लो, हमेशा
एक-सी रहती हैं, फूफी भी।
बंटी दबे पाँव पलंग से उतरा। धीरे से कमरे के बाहर निकला और दौड़कर करोंदे की
झाड़ियों के पास पहुँच गया। कुन्नी ने कहा था कि बंटी अगर उसे खूब सारे
करोंदे तोड़कर देगा तो वह बंटी को करोंदे की माला बनाकर देगी, खूब सुंदर-सी।
टीटू भी आ जाता तो दोनों मिलकर तोड़ते, पर वह बुलाने तो नहीं ही जाएगा। वहाँ
उसकी अम्मा मिल गईं तो बस, कबाड़ा। कोई बात नहीं, वह अकेला ही तोड़ेगा।
अचानक लोहे का फाटक बजा तो बंटी घूम पड़ा, “अरे, वकील चाचा !" पसीने में
सराबोर वकील चाचा एक तरह से हाँफते हुए अपनी पतली-सी छड़ी हिलाते हुए चले आ
रहे थे।
चिपचिपाते हाथों को कमीज़ से ही पोंछता हुआ बंटी दौड़ा और वकील चाचा की बाँह
से झूल गया।
“आप कब आए चाचा ?"
“क्यों रे, तू ऐसी भरी धूप में यहाँ करोंदे तोड़ रहा है ?"
"धूप ! कहाँ, मुझे तो नहीं लग रही।" बंटी दुष्टता से हँस रहा है।
"हाँ, धूप कहाँ, यह तो चाँदनी है न ? शैतान कहीं का ! शकुन घर में है या
कॉलेज ?"
“शनिवार को तो एक बजे ही छुट्टी हो जाती है कॉलेज की। भीतर सो रही हैं।" और
फिर 'ममी-ओ ममी, वकील चाचा आए हैं' के बिगुल नाद के साथ ही बंटी चाचा को लेकर
भीतर घुसा।
भरी नींद में से ममी उठीं और वकील चाचा को सामने देखकर जैसे एकदम सिटपिटा
गईं। साड़ी ठीक करके उठती हुई बोली, “अरे आप कब आए ?"
"यह बंटी वहाँ करोंदे तोड़ रहा था ऐसी धूप में।"
"ममी पूछ रही हैं, आप कब आए ? पहले उनकी बात का तो जवाब दीजिए।"
“तू बड़ा तेज़ हो गया है।" वकील चाचा ने अपनी टोपी उतारकर मेज़ पर रखी और ठीक
पंखे के नीचे बैठे गए। अभी तो ज़रा भी गरमी नहीं है और चाचा के इतना पसीना !
“तुम्हारे यहाँ आज आया हूँ तो समझ लो शहर में आज ही आया हूँ।"
"क्यों रे, तू उठकर फिर करोंदे तोड़ने चला गया। तुझे नींद नहीं आती तो फिर
पढ़ता क्यों नहीं ? इम्तिहान नहीं पास आ रहे ! आँख लगी नहीं कि गायब !"
ममी सचमुच ही गुस्सा होने लगीं। पर बंटी है कि अभी भी हँस रहा है। चाचा इस
समय कवच की तरह उसके सामने बैठे हैं। ममी का गुस्सा बेकार।
"चाचा, आपको जितनी गरमी लग रही है, उससे तो लगता है कि आप ठंडा ही पिएँगे,
बोलिए क्या लाऊँ ?"
चाचा की आँखों में एकाएक लाड़ उमड़ आया, "बड़ी ख़ातिर करना सीख गया। तू तो
एकदम ही बड़ा और समझदार हो गया लगता है।"
“मैं अभी आई।" कहकर ममी अंदर चली गईं। शायद मुँह धोने या चाचा के लिए कुछ
लाने !
बंटी धीरे-से सरककर चाचा के पास आया और उनकी कुर्सी के हत्थे पर बैठता हआ
बोला, "चाचा, पापा कब आएँगे इस बार ?"
इस प्रश्न में पापा के बारे में जानने की इच्छा भी थी, साथ ही यह उत्सुकता भी
कि पापा ने कुछ भेजा हो चाचा के साथ तो चाचा निकालें।
पता नहीं क्यों चाचा एकटक उसका चेहरा ही देखने लगे। घनी भौंहों के नीचे, कुछ
अंदर को धंसी आँखें जाने कैसी गीली-गीली हो गईं। बड़े दुलार से, पीठ पर हाथ
फेरते हुए बोले, “पापा की याद आती है बेटे ?"
झेंपते हुए बंटी ने गरदन हिला दी।
बंटी को लगा जैसे चाचा कहीं उदास हो गए हैं। पीठ सहलाता हुआ उनका हाथ उसे
काँपता-सा लगा। पापा की बात कहकर उसने कहीं गलती तो नहीं कर दी ? पता नहीं,
जब भी वह पापा की बात करता है, सब कुछ गड़बड़ा जाता है। किससे करे वह पापा की
बात ? किससे पूछे उनके बारे में ?
“पापा भी आएँगे बेटा, मैं जाकर उन्हें भेजूंगा।" चाचा का स्वर इतना बुझा-बुझा
क्यों है ? वे तो हमेशा इतने ज़ोर-ज़ोर से बोलते हैं जैसे क्लास में पढ़ा रहे
हों।
“मैं तो इस बार मिलकर भी नहीं आ सका, वरना ज़रूर तेरे लिए कुछ भेजते।"
और चाचा बड़े प्यार से उसकी पीठ सहलाने लगे। मानो कुछ न लाने की कमी वे प्यार
से ही पूरी कर देंगे।
चाचा कुछ लाए भी नहीं, इस सूचना ने बंटी को और भी खिन्न कर दिया, वरना जब भी
चाचा आते हैं, पापा उसके लिए ज़रूर कुछ न कुछ भेजते हैं और शायद यही कारण है
कि उसे चाचा अच्छे लगते हैं, चाचा का आना अच्छा लगता है।
“जो बंदूक तुम्हारे लिए भेजी थी, वह तुम्हें पसंद आई ?"
"बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी। आपने देखी थी ?" बंदूक के नाम से ही जैसे मरा
हुआ उत्साह एक क्षण को जाग उठा।
"हमने साथ ही जाकर तो ख़रीदी थी।"
फिर चाचा यों ही कमरे में इधर-उधर देखने लगे।
“ये चित्र तुमने बनाए हैं ?"
दीवारों पर ममी ने उसकी पेंटिंग्स गत्ते पर चिपका-चिपकाकर लटका रखी हैं। तीन
शीशे के फ्रेम में मढ़वा रखी हैं।
"हाँ।" बड़े गर्व से बंटी ने कहा, "स्कूल में मेरी और भी अच्छी-अच्छी रखी
हैं। आर्ट-क्लब का चीफ़ हूँ..”
“अच्छा !" चाचा ने शाबाशी देते हुए उसकी पीठ थपथपाई और फिर जैसे कहीं से उदास
हो गए। पर यह भी कोई उदास होने की बात हुई भला !
इतने में ममी घुसी। हाथ में ट्रे लिए हुए। लगा, वह मुँह भी धोकर आई हैं। यों
भी सोकर उठती हैं तो ममी का चेहरा बहुत ताज़ा-ताज़ा लगता है। चाचा को गिलास
पकड़ाकर ममी सामनेवाली कुर्सी पर बैठ गईं।
"तुम्हारा बेटा तो बड़ा गुनी है शकुन। कलाकार बनेगा। देखो न, इस उम्र में ही
बड़ी अच्छी पेंटिंग्स बना रखी हैं।"
ममी ने उसे देखा क्या, जैसे लाड़ में नहला दिया। बंटी सोच रहा था, ममी उसकी
तारीफ़ में कुछ और कहेंगी, पर फिर सब चुप हो गए।
हमेशा बोलते रहनेवाले चाचा भी चुप और चाचा के सामने चुप रहनेवाली ममी भी चुप।
अँधेरा-अँधेरा कमरा और भीतर बैठे लोग चुप। जैसे एक अजीब-सी उदासी वहाँ उतर आई
हो। चाचा कभी एक चूंट पीते हैं, कभी उसकी ओर देखते हैं तो कभी खिड़की की ओर।
पर खिड़की तो बंद है, उस पर परदा पड़ा है। वहाँ तो देखने को कुछ है ही नहीं।
ममी एकटक ज़मीन ही देखे जा रही हैं और वह है कि कभी ममी को देखता है तो कभी
चाचा को।
"चाचीजी अच्छी हैं, बच्चे ?" आख़िर ममी ने पूछा।
"हूँ, ठीक हैं सब।" कुछ इस भाव से कहा मानो उन्हें इन सबमें कोई दिलचस्पी ही
न हो।
"तुम गर्मियों की छुट्टियों में कहीं बाहर नहीं जा रहीं इस बार ?"
"नही, एक तो पहले से ही कहीं जगह का इंतज़ाम नहीं किया, यों भी इस बार यहीं
रहने का इरादा है।"
ममी पापा की बात क्यों नहीं पूछ रहीं ? लड़ाई में क्या बात भी नहीं पूछते
हैं?
“कलकत्ते में तो अभी से गरमी शुरू हो गई होगी ? यहाँ शाम को तो अभी भी बहुत
अच्छा रहता है और रात को ठंड रहती है।"
बातें कर रहे हैं, पर बंटी तक को लग रहा है कि जैसे कमरे का मौन नहीं टूट रहा
है। उदासी नहीं छंट रही है। यह चाचा को क्या हो गया है ? वैसे तो चाचा जब भी
आते हैं, उन्हें ममी से बहुत-बहुत बातें करनी रहती हैं। शाम को या दोपहर को
आएँगे तो रात के पहले कभी नहीं जाएँगे और जब तक बैठेंगे लगातार कुछ न कुछ
बोलते ही जाएँगे। अगर ममी थोड़ी देर को उठकर चली भी जाएँ तो चाचा उससे बातें
करने लगेंगे। और कुछ नहीं तो उसका टेस्ट ही ले डालेंगे। टेबल पूछेगे,
स्पेलिंग पूछेगे। चुप तो चाचा रह ही नहीं सकते। उन्हें इस तरह लगातार बोलते
देखकर बंटी को ख़याल आता, अगर इन्हें कभी क्लास में बैठना पड़े तो ?
बाप-रे-बाप ! सारा दिन सज़ा खाते ही बीते। मुँह पर उँगली रखे खड़े हैं या कि
मुँह पर डस्टर बाँधे बैठे हैं।
उसने पिछली बार यह बात ममी को बताई तो हँसते हुए उसका कान खींचकर कहा था,
"यही सब सोचता रहता है बड़ों के बारे में ?...और फिर देर तक हँसती रही थीं।
मुँह पर डस्टर बँधे चाचा की कल्पना में वह ख़ुद हँस-हँसकर दोहरा होता रहा था।
वही चाचा आज चुप हैं। चुप ही नहीं, उदास भी हैं।
“आप कितने दिन हैं यहाँ पर ?''
“परसों की तारीख है। बस उसी दिन शाम को चला जाऊँगा।" फिर एक क्षण ठहरकर बोले,
"तुमसे कुछ बातें करनी थीं, तो सोचा कि एक दिन हाथ में होगा तो ठीक रहेगा।"
ममी की आँखें चाचा के चेहरे पर टिक गईं। हजारों सवाल उन आँखों में झलक आए।
चेहरे पर एक अजीब-सा तनाव आने लगा। बंटी के मन में जाने कैसा-कैसा डर-सा
समाने लगा।
पहले वह कुछ भी जानता-समझता नहीं था। जानने-समझने की कोई इच्छा भी नहीं थी।
पर अब जानने लगा है। और जितना जानता है, उससे बहुत ज़्यादा जानने की इच्छा
है, बल्कि सब कुछ जान लेने की इच्छा है। उसे मालूम है कि चाचा पापा के पास से
आते हैं, और आने पर पापा की ही बातें करते हैं। क्या बातें करते रहे हैं, उसे
नहीं मालूम। उसने कभी सुनने की कोशिश ही नहीं की। पर इस बार जरूर सुनेगा।
हाँ, इतना उसे ज़रूर मालूम है कि चाचा एक-दो दिन के लिए आकर ममी को दस-बारह
दिनों के लिए बदल जाते हैं। कभी-कभी तो ममी इतनी उदास हो जाया करती थीं कि
उनसे बात करना भी बंद कर देती थीं। साथ सुलाकर भी न उसे प्यार से सहलातीं, न
कहानी सुनातीं।
पर पिछली बार ममी बहुत खुश हुई थीं, इतनी खुश कि बिना बात ही उसे बाँहों में
भर-भरकर प्यार करती रही थीं।
तब बंटी को शक हुआ था कि चाचा की छड़ी में तो कोई जादू नहीं है ! ममी पर
फेरकर चले गए और ममी बदल गईं। तब उसने चुपचाप छड़ी को अपने ऊपर फिराकर देखा
था, फूफी पर भी फिराकर देखा था, पर उनको तो कुछ नहीं हुआ। नहीं, छड़ी में
नहीं, चाचा की बात में ही कुछ होता है।
आज पता नहीं कैसी बात करेंगे ? उसके बाद ममी खुश होंगी या उदास ? इस बार वह
सारी बात ध्यान से सुनेगा।
उसने एक उड़ती-सी नजर ममी पर डाली। ममी की आँखें वैसे ही चाचा पर टिकी हुई
हैं। आँखों में वैसे ही सवाल झूल रहे हैं। पर चाचा हैं कि चुप। बोलते क्यों
नहीं ? बात करनी है तो करें बात। वहाँ खिड़की में क्या देखे जा रहे हैं ? बात
वहाँ तो लिखी हुई नहीं है।
"शकुन !'' चाचा बोले नहीं, जैसे शब्दों को किसी तरह ठेला। कैसी मरी-मरी आवाज़
निकल रही है आज उनकी।
टकटकी लगाए-लगाए ममी की आँखें जैसे पथरा गई हैं। बस मूर्ति की तरह वे बैठी
हैं, मानो साँस भी नहीं ले रही हों।
“वह चाहता है कि अब इस सारी बात की कानूनी कार्यवाही भी कर ही डाली जाए।"
चाचा का स्वर कैसा बिखर-बिखर रहा है।
यही बात कहनी थी चाचा को ? पर इसका मतलब ? 'वह' तो पापा हैं, बात भी पापा की
ही है, पर क्या है, कुछ भी समझ में नहीं आया।
"तो क्या इसीलिए आपको यहाँ भेजा है ?" ममी का चेहरा ही नहीं, उनकी आवाज़ भी
सख्त हो गई है, वही प्रिंसिपलवाला चेहरा।
"नहीं-नहीं, मैं तो अपने काम से आया था। पर जब आने लगा तो उसने मुझे तुमसे इस
विषय में बात करने को कहा था। मैं नहीं आता तो वह ख़ुद शायद तुम्हें लिखता।
इसका मतलब चाचा मिलकर आए हैं पापा से और अभी-अभी उससे कहा था कि आने से पहले
मिला नहीं। चाचा इतने बड़े होकर भी झूठ बोलते हैं। उसे बड़ों की बात के बीच
में नहीं बोलना चाहिए, वरना वह अभी पूछता।
चाचा ने शरीर ढीला छोड़कर पीठ कुर्सी पर टिका दी और आँखें मूंद लीं, जैसे
बहुत-बहुत थक गए हों।
बस, हो गई बात, इतनी-सी बात करने आए थे ? हुँह ! यह भी कोई बात हुई भला !
“आप कुछ देर आराम कर लीजिए। रात के सफ़र की थकान भी होगी। बाकी बातें शाम को
हो जाएँगी। ऐसी कौन-सी नई बात करनी है।" वाक्य का अंतिम हिस्सा ममी ने जैसे
अपने-आपसे कहा और बिना चाचा का उत्तर पाए ही अलमारी खोलकर एक चादर निकाली और
ड्राइंग-रूम के दीवान पर बिछा दी।
"चलिए, जाकर लेट जाइए।" ममी ने ऐसे कहा जैसे बंटी को कह रही हों। और चाचा भी
बिलकुल चुपचाप उठकर चले गए। पता नहीं वे सचमुच ही थके हुए थे या पता नहीं वे
जैसे बात टालना चाह रहे थे।
“और तू सोता क्यों नहीं है ? यहाँ बैठकर गुटर-गुटर बातें सुन रहा है। भरी
दोपहर में भी तुझे नींद नहीं आती।"
बंटी उछलकर पलंग में दुबक गया। पर नींद का कोई प्रश्न ही नहीं। ममी की ओर
देखकर पूछा, “चाचा क्या कहते थे ममी ?"
ममी ने ऐसी चुभती नजरों से उसे देखा कि वह भीतर तक सहम गया और खट से उसने
आँखें बंद कर लीं। पर बंद आँखों से भी वह उस चुभन को महसूस करता रहा। फिर बंद
आँखों से ही उसने जाना कि ममी भी उसकी बग़ल में आकर लेट गई हैं। अब सबको
सुलाकर ममी जागती रहेंगी।
चाचा की कही हुई बात क्या बहुत बुरी थी ? अनायास ही ममी की उँगलियाँ उसके
बालों को सहलाने लगीं, काँपती-थिरकती उँगलियाँ। उन उँगलियों के पोरों में से
झर-झरकर जाने कैसा स्नेह बंटी की नसों में दौड़ने लगा कि मन में थोड़ी देर
पहले जो भय समाया था, वह अपने-आप ही धीरे-धीरे बह गया। स्पर्श से ही वह जान
गया कि अब तक ममी के चेहरे की वह सख्ती भी ज़रूर पिघल गई होगी।
उसने धीरे-से आँखें खोलीं। ममी हमेशा की तरह छत की ओर देख रही थीं। आँख से
शायद अभी-अभी झरा आँसू कनपटी को भिगोता हआ बालों की लट में लटका था। ममी का
आँसू। ममी को उसने उदास होते देखा है, गुस्सा होते और डाँटते हुए भी देखा है,
पर रोते हुए कभी नहीं देखा।
चाचा ने शायद कोई बहुत ही खराब बात कह दी है। चाचा को लेकर उसके मन में एक
अजीब तरह का आक्रोश घुलने लगा। एक तो कुछ लाए नहीं, फिर झूठ बोला और अब कोई
गंदी-सी बात कहकर ममी को...
ममी शायद बहुत दुखी हैं। जैसे भी होगा वह ममी के दुख को दूर करेगा। ये लोग
सारी बात बताएँगे तो ठीक है, नहीं तो ख़ुद पता लगाएगा। माँ का दुख दूर
करनेवाले राजकुमार तो कैसे कठिन-कठिन काम करते थे।
वह सरककर ममी से और सट गया। फिर अपनी छोटी-सी बाँह ममी के गले में डालकर
बोला, बहुत आग्रह के साथ, बहुत मनुहार के साथ, “मुझे बताओ न ममी, चाचा ने
क्या कहा ?"
“तू सोएगा नहीं बंटी !" उदासी में भी ममी ने ऐसे कड़ककर कहा कि बंटी ने
चुपचाप आँखें मूंद लीं।
ढेर-ढेर प्रश्नों का, ढेर-ढेर कौतूहल का सागर उसके चारों ओर उमड़ने लगा,
जिसमें वह डूबता ही चला गया, गहरे और गहरे। और फिर पता नहीं उसे कब नींद आ
गई।
धूप ढल गई तो ममी और चाचा लॉन में आ बैठे। वह जब से जगा है इन लोगों के आसपास
ही मंडरा रहा है। आज जैसे भी हो उसे सारी बात जाननी है, पर चाचा उस तरह की
कोई बात ही नहीं कर रहे। उसकी पढ़ाई की बात, ममी के कॉलेज की बात और दुनिया
भर की बातें कर रहे हैं, पर जो बात करने आए हैं, बस वही नहीं कर रहे। शायद वह
बैठा है, इसलिए, पर वह जाएगा भी नहीं, बैठे रहें रात तक। रात को वह आँख
मूंदकर सोने का बहाना करके पड़ा रहेगा और सा री बातें सुन लेगा।
"बंटी बेटे, तुम शाम को खेलते-वेलते नहीं हो ? अच्छा ज़रा बताओ तो, कौन-कौन
से खेल आते हैं तुम्हें ?"
खेल-वेल ! सीधे से क्यों नहीं कहते कि यहाँ से चलते बनो। ठीक है. मैं चला ही
जाता हूँ। मेरा क्या है, मत बताओ मुझे। ममी भी ऐसे देख रही हैं, मानो मेरे
जाने का इंतज़ार कर रही हों।
बंटी बिना एक शब्द भी बोले भीतर आ गया। पर मन उसका जैसे वहीं अटका रह गया।
नहीं, वह ज़रूर सुनेगा।
मेहंदी की मेड़ के किनारे-किनारे घुटनों के बल चलकर वह फिर वहीं आ गया। चाचा
की कुर्सी के पीछे मोरपंखी का जो पौधा है, उसके पीछे दुबककर बैठ जाए तो कम से
कम चाचा की बात तो सुन ही सकेगा। बात तो उन्हें ही करनी है। कहीं ममी या चाचा
ने देख लिया तो ? बाप रे ! इस बात से ही मन भीतर तक काँप गया। तभी भीतर से मन
ने धिक्कारा-बस, इसी बूते पर कुछ करना चाहते हो। राजकुमार तो राक्षसों के
महलों तक में घुस गए, बड़ी-बड़ी मुसीबतें उठा लीं और तुम कुर्सी के पीछे तक
नहीं जा सकते। आख़िर हिम्मत करके, बिना ज़रा भी आवाज़ किए, पहले मोरपंखी के
घने-घने पौधों के पीछे आया और फिर सरककर चाचा की कुर्सी के पीछे। कुछ बड़ा
काम कर डालने का संतोष भी मन में था और कुछ बुरा काम करने का डर भी पर नहीं,
ममी का दुख दूर करने के लिए शायद सभी को सभी तरह के काम करने पड़ते हैं। यह
ममी का काम है, अच्छा काम !
ममी कुछ बोल रही हैं शायद ! कितना धीरे बोलती हैं ममी ! कुछ भी तो सुनाई नहीं
दे रहा। नहीं, शायद कोई कुछ बोल ही नहीं रहा। अजीब बात है !
“शकुन !” ठीक है, खूब साफ़ सुनाई दे रहा है। पर चाचा रुक क्यों गए ? फिर सब
चुप !
“शकुन ज़िंदगी चाहने का नाम नहीं..." लो अब आवाज़ इतनी धीरे कर दी कि ठीक से
कुछ सुनाई नहीं दे रहा। बार-बार जिंदगी-जिंदगी कर रहे हैं, पापा की बात ही
नहीं कर रहे।
बंटी थोड़ा और पास सरका। अब शायद ममी बोल रही हैं। खूब धीरे बोल रही हैं फिर
भी सुनाई दे रहा है। अपनी ममी की तो धीरे से धीरे कही हुई बात भी वह सुन सकता
है, समझ सकता है। “उम्मीद का तो प्रश्न ही नहीं उठता वकील चाचा। उम्मीद तो न
पहले थी, न अब है।"
“नहीं ! ऐसी बात नहीं है। शुरू के तीन-चार साल तक तो मुझे बहुत उम्मीद थी,
खासकर बंटी के प्रति उसका रुख देखकर। बच्चे..."
पता नहीं बीच-बीच में क्या बोलते जा रहे हैं। मेरे बारे में बोलते-बोलते
सीमेंट की बात करने लगे। एकाएक ख़याल आया टीटू को ले आता, वह शायद सारी बात
समझ लेता। पर नहीं, अपने घर की बात सबको नहीं बतानी चाहिए।
“मीरा के साथ तो उसका खूब अच्छा है। यू नो शी इज़..."
अब बीच में पता नहीं यह किसकी बात घुसा दी। चाचा को कभी इम्तिहान देना हो तो
एकदम अंडा। लिखना है कुछ और आप इधर-उधर का लिख रहे हैं।
ममी तो शायद कुछ बोल ही नहीं रहीं। ये बोलने ही नहीं देंगे। दोपहर में तो
गरमी और थकान के मारे शायद बोलती बंद हो रही थी...अब तो फिर पहले की तरह चालू
हो गए। भले ही बोलें, पर ऐसी बात तो बोलें, जो समझ में आए।
तभी ममी की आवाज़ सुनाई दी। बात तो कुछ समझ में नहीं आ रही, बस, यह पता लग
रहा है कि आवाज़ खूब सख्त है ! चेहरा भी ज़रूर सख्त हो गया होगा। मन हुआ एक
बार देख ही ले। पीछे बैठते समय जो डर लग रहा था वह धीरे-धीरे दूर हो गया था
और अब जैसे हौसला बढ़ रहा था। वह कुर्सी से एकदम सट गया।
“मैं क्या जानता नहीं, इसीलिए तो कह भी दिया। कोई और होता तो कभी बोच में
नहीं पड़ता। अजय ने दस्तख़त करके फार्म दे दिया है। कल तुम भी उस पर दस्तख़त
कर देना। मैं कचहरी में जमा करके जल्दी ही कोई तारीख देने के..."
धत्तेरे की ! ये वकील चाचा भी एक ही घनचक्कर हैं। पापा-ममी की बात के बीच में
भी अपनी कचहरी-तारीख़ ज़रूर लगाएँगे। वकील की दुम !
लो, अब कोई कुछ बोल ही नहीं रहा। दोनों गुमसुम होकर बैठ गए। बंटी का मन हुआ,
वहाँ से सरक ले। ऐसे तो कुछ भी समझ में नहीं आएगा, जो कुछ पूछना है ममी से
पूछेगा।
“क्या बताएँ कुछ भी समझ में नहीं आता। लगता है, जब एक बार धरी गड़बड़ा जाती
है तो फिर जिंदगी लड़खड़ा ही जाती है...फिर कुछ नहीं होता...कुछ भी नहीं..."
और जाने कैसे अचानक चाचा का लंबा-सा हाथ पीछे को लटका और बंटी के सिर से टकरा
गया। बंटी एकदम सकपका गया। ये चाचा भी अजीब हैं। बात करनी है, सीधी तरह से
करो। इतना हाथ-पैर नचाने की क्या ज़रूरत है ?
“अरे यह क्या, बंटी ! तुम यहाँ क्या कर रहे थे ?"
बंटी को काटो तो खून नहीं।
"छिपकर बातें सुन रहे थे ?" चाचा ममी की ओर इस तरह देख रहे हैं जैसे बंटी
नहीं, ममी चोरी करते हुए पकड़ ली गई हों।
बंटी ने नज़रें झुका लीं। ज़रूर ममी भी वैसी सख्त नज़रों से उसे देख रही
होंगी। उसकी हिम्मत नहीं हो रही है कि आँख उठाकर एक बार देख भी ले। उसकी
आँखें ही नहीं, उसका सारा शरीर भी जैसे जहाँ का तहाँ जम गया। भीतर से बस एक
धिक्कार उठ रही है, पता नहीं अपने लिए, पता नहीं चाचा के लिए।
"अच्छा है चाचा, मैं तो खुद चाहती हूँ कि यह अब सब कुछ जान ले। आखिर कब तक
इससे छिपाकर रखा जा सकता है ! अब इसके मन में यह बात बहुत घुमड़ने लगी है
आजकल !''
बंटी जैसे उबर आया। मन हुआ दौड़कर ममी के गले से लिपट जाए, कह दे चाचा को कि
ममी तो उसे सब कुछ बताएँगी, क्या कर लेंगे आप।
"हाँ-हाँ, बताने-जानने को कौन मना करता है, पर ठीक से जाने। मेरा मतलब था, यह
छिपकर सुनने की आदत ठीक नहीं है।" फिर आवाज़ को बहत मुलायम बनाकर बोले, "बंटी
बेटे, जाओ खेलो, अच्छे बच्चे हर समय बड़ों के बीच में नहीं बैठते और बंटी तो
बहुत अच्छा...क्लास में इतने अच्छे नंबरों से पास होता है, इतनी बढ़िया
ड्राइंग करता है!"
बंटी ने फिर ममी की ओर देखा। शायद वे उसे अपने पास बैठने को ही कह दें।
"टीट्र के साथ खेलने नहीं जाएगा बंटी ?” ममी ने बहुत धीमे से पूछा। ममी का
चेहरा ही नहीं, ममी की आवाज़ भी बहुत उदास हो गई लगती है।
''मैं तो अपने पौधों को पानी दे रहा था, ममी !” रुआंसी-सी आवाज़ में बंटी ने
एक बार जैसे अपने यहाँ रहने की सफ़ाई दी।
“अच्छा, पानी देते हो अपने पौधों को ? बहुत अच्छे बच्चे हो, शाबाश ! अब खेलने
जाओ, अपने टीटी-वीटी के साथ खेलो।"
बंटी ने मन ही मन जीभ चिढ़ाया चाचा को। हुँह ! नाम तक तो लेना आता नहीं। टीटी
हो गया।
और फिर वहाँ से तीर की तरह भाग गया, कुछ इस भाव और फुर्ती के साथ मानो उसे
वहाँ बैठने की या कि उन दोनों के बीच की बातचीत सुनने-जानने की कोई इच्छा
नहीं है, वह तो बस यों ही बैठ गया था। रखें, अपनी बात अपने पास।
दौड़ते हुए ही चाचा के अंतिम वाक्य को याद किया, “जब धुरी गड़बड़ा जाती है तो
जिंदगी लड़खड़ा जाती है।" ज़रूर इस धुरी में ही कोई बात है, तभी तो उसे भगा
दिया। धुरी का मतलब क्या होता है ? किससे पूछे ? टीटू से ही पूछेगा। टीटू
सचमुच बहुत सारी ऐसी बातें जानता है, जो वह नहीं जानता। उसके अम्मा-पापा उसके
सामने ही तो सारी ऐसी बातें करते हैं, इसलिए सब जानता भी है। धुरी भी जरूर
जानता होगा।
टीटू गुलेल में कंकड़ लगाकर पेड़ पर बने घोंसले का निशाना साध रहा था।
"क्या कर रहा है ?"
“पापा ने कहा है, मुझे भी तेरे जैसी बंदूक दिलवा देंगे। बस, पहले मैं निशाना
लगाना सीख जाऊँ। निशाना तो गुलेल से भी सीखा जा सकता है।"
“मैं तुझे अपनी बंदूक ही दे दूंगा, सीख लेना।" इस समय कुछ अतिरिक्त रूप से
उदार हो रहा है बंटी का मन।
“दे देगा ? चल तो ले आएँ।" टीटू ने गुलेल में फँसे कंकड़ को लापरवाही के साथ
तड़ाक से ज़मीन पर ही उछाल दिया।
“अभी नहीं। वकील चाचा आए हैं। ममी और उनमें कोई बात हो रही है, ज़रूरीवाली।
अभी बच्चों को उधर नहीं जाना चाहिए।" बड़े बुजुर्गी अंदाज़ में बंटी ने कहा।
"ऐ टीटू, एक बात बताएगा ?"
"क्या ?"
“धुरी का क्या मतलब होता है रे ? तू जानता है ?''
“धुरी ?" टीटू सोचने लगा। फिर पूछा, “पर क्यों ?"
"एक बात है। पर तू पहले मतलब बता। कोई बहुत गड़बड़ मतलब होना चाहिए।" और बंटी
की आँखों के सामने ममी का उदास चेहरा घूम गया। लगा जैसे जो कुछ गड़बड़ है, वह
यहीं है और जैसे भी हो इसका मतलब जानना ही है।
"शब्द-अर्थ की कापी लाऊँ, शायद उसमें कहीं लिखा हो।" फिर एकाएक बोला, “बताऊँ,
याद आ गया।" बंटी की आँखें खुशी से चमक उठीं।
"वह एक लाइन है न यार-सब धन धूरि समान।"
"कौन-सी लाइन, मुझे तो नहीं मालूम !"
"तुझे कैसे मालूम होगा। तू जब चौथी में आएगा, तब तो पढ़ेगा !"
"तो मतलब क्या हुआ ?" बंटी जैसे कहीं से खिन्न हो आया।
"धूरि यानी धूल-मिट्टी समझा। एक बार पढ़ी हुई बात मैं कभी नहीं भूलता हूँ।"
पर टीटू के इस आत्मसंतोष से बंटी का मन हलका नहीं हुआ। मन ही मन दुहराया, जब
एक बार धूल गड़बड़ा जाती है तो...धत् ! यह नहीं, कुछ और होना चाहिए।
"बात क्या है, तू बता न ?"
बंटी ने एक बार इधर-उधर देखा। फिर ज़रा पास सरककर बोला, "जब एक बार धुरी
गड़बड़ा जाती है तो जिंदगी ही लड़खड़ा जाती है।" और फिर कुछ इस भाव से देखने
लगा मानो कह रहा हो समझ लो, इतनी बड़ी बात है। बता सकते हो इसका अर्थ ?
“यह क्या हुआ ! धत् पागल है तू तो।"
"नहीं, पागल नहीं हूँ। बहुत बड़ी बात होती है यह। इतनी बड़ी कि मैं और तू तो
समझ ही नहीं सकते। ममी-पापा लोगों की बात होती है। शायद उनकी लड़ाई की बात।"
और रात में जब सोया तो बार-बार मन हो रहा था कि ममी से इस बात का अर्थ पूछे।
चाचा क्या बात कर गए हैं, सब पूछे। ममी ने तो ख़ुद बताने को कहा था। पर
कुर्सी के पीछे छिप करके बैठने की हरकत से वह कहीं भीतर ही भीतर इतना सहमा
हुआ था कि पूछने का साहस ही नहीं हुआ। सब कुछ जानने का यह कौतूहल उसके अपराध
को और पुख्ता ही करेगा। नहीं, उसे कुछ भी नहीं जानना।
पर बिना कुछ पूछे और जाने भी उसे बराबर लग रहा है कि कोई एक बहुत बड़ी
गड़बड़ी है, जो उसके चारों ओर है, जो ममी के चारों ओर है, उस गड़बड़ी की बात
बताने के लिए ही चाचा कलकत्ते से यहाँ आए हैं, ममी इतनी उदास हैं, पर अब
किससे पूछे !
उसके पास भी जादू का लैंप होता तो घिसकर जिन्न को बुलाता और सब पूछ लेता।
कैसे मिल सकता है जादू का लैंप !
और फिर धीरे-धीरे कहानियों का जादुई माहौल उसकी पलकों पर उतरने लगा और वह सो
गया।
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